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सपनों की इमारत
मैंने देखा है सपनों की इमारत को बनते हुए,
सबको उसकी सराहना करते हुए,
कि कितनी अज़ीम बनेगी ये,
हम भी यहीं रहेंगे,
अपना पता देंगे सबको,
कुछ दिन यहीं रुकने को कहेंगे।
मैंने देखा है सपनों की इमारत को बनते हुए,
लोगों को उसके लिए सुबह–शाम काम करते हुए,
कि तैयार होगी ये जब,
तो हमें भी इनाम मिलेगा,
मालिक से प्यार और पैसों में लिपटा हुआ
एक पैग़ाम मिलेगा।
आज वो इमारत ढह गई है,
वो जगह वीरान है,
मैं हैरान हूँ,
और मज़दूर परेशान हैं।
शहर में बड़े सेठों का समूह आया है,
बोले, हम यहाँ बेहतर मकान बनाएँगे,
तुम भी अच्छे थे,
पर इस बार तुम रहने दो।
मैंने पूछा क्यों?
तो बोले, माफ़ करना,
खामियाँ तो नहीं बता पाएँगे।
हमने कहा, चलो ठीक है, कोई ना,
आज हमारा इतना दर्जा नहीं है,
कि तराज़ू पर रखे हम दोनों को अगर,
तो पलड़ा हमारी ओर गिरे,
इतना तजुर्बा नहीं है।
लेकिन सही वक़्त आने पर,
हम इस खेल में वापस आएँगे,
और इस बार सिर्फ़ एक इमारत नहीं,
पूरा शहर बनाएँगे।
- सूर्यांशु






